Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ४५०

कीरति जाण बिसतीरति है,
नित जीवति थीवति अंम्रित पीजै१- ॥४५॥
मधु कैटभ दैत अुभै बड बीरज२
धीरज धारि ये बाक अुचारा।
-जल हीन जहां थल तां तल अूपर
सीस टिकाइ कै लेहु अुतारा।
कहि बाक दयो नहिण कूर करैण तिह,
पूरनि होइ सु परण+ हामारा।
जसु जीवन है धणन थीवन है३,
लिहु सीस, करो नहिण आप अवारा४- ॥४६॥
जगनाथ नरायन श्री पुरशोतम
यौ सुनि बाक अुपाइ बिचारा।
निज आसन को करि कै जल अूपर
बैठि गए करि कैबिसतारा।
तबि दैत को अुरू५ दिखावनि कीनसि,
-है थल६ ना जल७ लेहु निहारा।
तव ग्रीव ते सीस अुतारन मेण
हुइ साच कहो जसु पाइ अुदारा- ॥४७॥
कुंडल ते मुख मंडल शोभति
सीस किरीट रहो चमकाई।
आन धरो प्रभु केर अुरू पर
पूरन प्रज़ं की चौणप८ बढाई।
और सरीर परो जल अूपर
दीने पसारि कै हाथु रु पाई।
यौ मध कैटभ दैत दुअू,

१जिस दी कीरती फैल रही है अुह नित जीणदा ते थीणदा है, ते (जस रूपी) अंम्रत ळ पीणदा है।
२दोवेण बड़े बल वाले।
+पा:-दान।
३जस नाल जीअुणा (ही) धंन थीवंा है।
४देर।
५पज़ट।
६ग़मीन है।
७जल नहीण है।
८शौक।

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