Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ४५१

मन पावन ते दिय दान महाई ॥४८॥
श्री जगनाथ अुभार कै हाथ
सु चज़क्र संभार हग़ार है आरा१।
दैतनि को सिर काट दियो
जिन को धर भीम२ परो बिसतारा।
पूरन कीनि मनोरथ श्री प्रभु
तातन ते जबि सीस अुतारा।पंकज आसन३ को करि शासन४
-जो तव कंटक५ संकट हारा- ॥४९॥
चीकनता६ निकसी तिन भाल ते
अूपर नीर रही तर छाई७।
तांही ते होति भई धरनी
जगदीश कला निज ते ठहिराई।
आसन के तर मेद नहीण परि८
पावन याहीण ते भी अधिकाई।
होइ असीन नरायन को
इमि तीरथ भे इस मे समुदाई ॥५०॥
चौपई: भई मेद५ ते धरनी इहै।
यां ते नाम -मेदनी- कहैण।
तिस पीछे ब्रहमा तप घाला।
लाखहुण संमत तपो बिसाला ॥५१॥
पुन सभि इह परपंचु बनायो।
जड़्ह जंगम जेतिक द्रिशटायो।
लाखहुण रिखि इस थल महिण आइ।
तप को तपि अूचो पद पाइ ॥५२॥


१हग़ार आरे वत।
२भानक धड़।
३ब्रहमा ळ।
४धीरज दिज़ता।
५दुख देणे वाला।
६मिज़झ।
७पांी ते फैलके तर रही सी।
८आसन दे हेठ मिज़झ नहीण सी पई।

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