Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ३) ५७

५. ।बाबा बुज़ढा जी साहिबग़ादे जी दे दरशन करन आए॥
४ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ३ अगला अंसू>>६
दोहरा: इक दासी दौरति गई, गुर अरजन जिसु थान।
करति अुडीकनि सुत जनम, जागति क्रिपा निधान ॥१॥
सैया छंद: सिमरहि अबिनाशी पुरशोतम,
सज़त नाम श्री बदन अुचार।
सुठ प्रयंक पर प्रभू बिराजहि
बैठे एकल बुज़धि अुदार।
सुधि दीनसि दासी कहि बानी
श्री गुर! जनमोण पुज़त्र तुमार।
अति अनद हुइ सदन अंदरे
अुतसव करति सरब ही नारि ॥२॥
सुत जनमनि को बैन श्रोनि सुनि
श्री अरजन मन अनद अुदार।हाथ बंद करि बंदन कीनसि
श्री परमेशुर धान सु धारि।
अुमगो प्रेम छेम को करता
निस दिन बसै जु रिदै अगार१।
जाम जामनी ते किय मज़जन
बहुर बिराजे आसन डारि ॥३॥
सुत परथाइ सबद शुभ कीनहु,
-महां पुरख अवतार सुजान।
अनिक नरन पर परअुपकारी
दैगो दुशटन दंड महान।
पीरी अरु मीरी कहु बरतहि
नई रीति बिदताइ जहान।
पहिरहि शसत्र तखत पर बैठहि
बंस बधाइ जुगनि लगि मान२ ॥४ ॥
दोहरा: कुल भूखन दूखनि रिपुनि३, पूखन तेज प्रचंड४।

१रिदे रूपी घर विच।
२जुज़गां तीक जाणो।
३सज़त्रआण ळ दुख देण वाले।
४तिखे तेज वाले सूरज (रूप)।

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