Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि २) ४५७
५७. ।ब्रिज़ध जी ने आदि गुरू जी दे सिज़ख परखं दा प्रसंग सुणाया॥
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दोहरा: ४श्री नानक की बारता,
अदभुत सुनो महान।
परखन करि सभि रीति सोण,
अंगदि परम सुजान ॥१॥
चौपई: इक दिन हम तीनहु संग गए।
नदी प्रवेश गुरू जी भए।
इक श्री अंगद दुतिय भगीरथ।
मैण जुति१ सेवति भे गुर तीरथि२ ॥२॥
ओरनि की३ बरखातबि भई।
सीतलता हम को चढि गई।
तबि दोनहु४ ग्रहि को चलि आए।
सीत बिदारो अगनि तपाए ॥३॥
श्री अंगद को मुरछा भई।
बैठो रहो, न तन सुधि लई।
निकसे श्री नानक तिस जानि५।
सभि गति हेरि प्रसंन महान६ ॥४॥
पुन धानक को धारो बेस*।
जिस ते भागे सिज़ख अशेश।
जीरन वसत्रनि वाण पुराना।
सिर पर बाणधो जटा समाना ॥५॥
छीट छाछ की७ तन छिटकाई।मखिका अनिक भ्रमति चहुघाई८।
४बाबा बुज़ढा जी प्रसंग सुणाअुणदे हन।
१समेत।
३गड़िआण दी।
४असीण दोवेण (मैण ते भगीरथ)।
५(मूरछा होए) जाणके।
*श्री गुरू पहिली पातशाही दा इक शबद सिरी राग विच है, एकु सुआनु दोइ सुआनी नालि
इस दा भाव अंत्रीव लोभ रूपी कुज़ता ते आसा त्रिशनां जाण भुज़ख त्रिखा दो कुज़तीआण हन, इसे शबद दे
बाहरले भाव तोण इस साखी दा भाव लैणदे जापदे हन।
७लसी दीआण छिज़टां।
८मज़खीआण भिं भणौणदीआण चारोण पासीण।