Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ३) ४५८
५१. ।भाई तिलोके दी काठ दी तलवार। भाई कटारू दा घज़ट वज़टा॥
५०ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ३ अगला अंसू>>५२
दोहरा: श्री सतिगुर इक दिन थिरे, संगति दरसति आइ।
सिज़ख तिलोका नाम जिस, चरन कमल सिर लाइ ॥१॥
चौपई: हाथ जोरि तिन अरग़ गुजारी।
मैण आयो प्रभु शरन तुमारी।
जिस ते मेरो हुइ कज़लाना।
जुग लोकनि महि अनद महाना ॥२॥
अस मुझकअु दीजहि अुपदेश।
सुनति कमावति नसहि कलेश।
सुनि सतिगुर करि दया सुनाई।
सतिनाम सोण रहु लिवलाई ॥३॥
अूठति बैठति आवति जाण ते।
नहि सिमरन तागहु दिन राते।
परमेशुर भांे को मानि।
हरखहु -भली करहि- इम जानि१ ॥४॥
दोश अरोपहु कोइ न प्रभु मैण।
जो बापक नभ की सम सभि मैण।
तन हंता को तजि अज़भास।
सनै सनै लखि रूप प्रकाश ॥५॥
रहु अहिंस२ करि सभि पर दया।
किस को नहीण दुखावहु हिया।
जथा लाभ कीजहि संतोशा३।
तजहु बिकार आदि जे रोसा४ ॥६॥
इम सतिगुर ते ले अुपदेश।
गमनो गग़नी अपनो देश।
मुल चाकरी तहां करंता।
वहिर अरूढे संग रहंता ॥७॥
लेति रजतपण नित पंचास*।
१इह जाणके खुश होवो कि (परमेशुर) भली करदा है।
२जीव घात ना करना।
३संतोख।
४क्रोध आदिक।