Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ४) ४६१
६०. ।गुआलीअर निवास। प्रेमी सिज़खां दी सलाह॥
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दोहरा: अुर हरखति चंदू भयो, पुरो मनोरथ जानि।
दयो नजूमी को दरब, अरु अुमरावनि मान ॥१॥
चौपई: -परे कैद अबि करिहौण हान।
छूटनि निकसनि होहि तहां न१-।
जतन बिचारति मारनि केरा।
निस दिन गिनती गिनहि घनेरा ॥२॥
जमांदार को लिखो बनाइ।
इहु मम रिपु जानहु इत आइ।
करि अुपाव मैण तुझ ढिग भेजा।
इस दुख ते मम पाक२ करेजा ॥३॥
नहीण दुरग ते निकसनि पावै।
इम कीजहि जिम जम घर जावै।
सोअुपाअुण मैण कहौण बनाई।
पोशिश सभि दिहु ग़हिर लगाई ॥४॥
अति तीछन जिस ते ततकाल।
तजहि प्रान पहिरति बिकराल३।
निज नर आछो कीनि पठावनि।
इह बनवावहि हित पहिरावनि ॥५॥
तुम निज कर लै के ढिग जावो।
-पोशिश पठी शाहु- बतरावो।
कहहु कपट के माधुर बैन।
पहिरावो तन हेरति नैन ॥६॥
जबि मम रिपु जम धाम पहूचे।
तोहि मरातब करि हौण अूचे।
शाहु निकट ते मान करावौण।
हेत गुग़ारे ग्राम दिवावौण ॥७॥
पंज हग़ार दरब मैण दैहौण।
१छुज़ट के तिज़थोण निकलना नहीण होवेगा।
२पज़क गिआ है।
३भिआनक।