Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ४७५

पठहिण शबद करि प्रेम बिसाले ॥३८॥
दरशन करे जाइ सुखरासी१।
धरहिण अकोर चरन के पासी।
सभि की कुशल बूझि सतिकारे।
रामदास सोण बाक अुचारे ॥३९॥
तुम को गए सौणप सभि कारी।
कुशल संग सो भले संभारी?
अनद समेत अपर सभि अहैण?
गोइंदवाल विखै जे रहैण ॥४०॥
हाथ जोरि करि सकल बताई।
प्रभु तुम ने सभि सुख बरताई।
जेतिक जिस ते कार कराई।
तेतिक भई कुशल समुदाई ॥४१॥
इम मिलि सकल नरन के साथ।
अुतरे पार बिपासा नाथ।
पुरि महिण प्रविशे मंगल करिते।
दरसहिण त्रिय नर हरख सु धरिते ॥४२॥
आइ बिराजे अपनि सथान।
मंगल होति अनेक बिधान।
जो ग्रामनि के संगी हुते।
करि बंदन घर गमने तिते ॥४३॥
सुजसु करति बहु सतिगुर केरा।
फैलो देश बिदेश बडेरा।
करति अनिक जीवनि कज़लान।
दोस बितावहि गुरु भगवान ॥४४॥
दोहरा: प्रथम रीति नितचलति तिम, दे करनि ते आदि।
सिज़ख सैणकरे होति हैण प्रापति परम प्रसादि२ ॥४५॥
इति श्री गुर प्रताप सूरज ग्रिंथे प्रथम रासे स्री गंगा ते आगवन
प्रसंग बरनन नाम पंचासती अंसू ॥५०॥


१सुखां दी खां श्री गुरू जी दे।
२भाव नाम दान ळ, यथा गुरवाक- नामु न विसरै संत प्रसादि'॥ (अ) परम दिआलता।

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