Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ४) ४७७
६२. ।भाई जेठे ळ अजर जरन दा अुपदेश॥
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दोहरा: दिन बीतो संधा भई, शाहु करी जिस भाइ।
तकराई सभि बिधि करी, लोह कनात लगाइ ॥१॥
चौपई: जार लोह को१ अूपर तनो।
चहुदिशि महि जनु पिंजर बनो।
ब्रिंद पाहरू दार सुचेत।
खरे करे जागनि के हेतु ॥२॥
सभि बिधि सोण करि कै तकराई।
सुपतो शाहु नीणद तबि पाई।
अरधि राति लौ सोवति रहो।
बहुर त्रास तैसे तबि लहो ॥३॥
दोनहु दिशि ते दारुन शेर।
दीरघ दांत सु आवति हेरि।
बोलो डरति हाथ को बंदि।
राखो मुहि श्री हरिगोविंद! ॥४॥
इक तुम हो नित मम रखवारे।
बनहु सहाइक, दास तुमारे।
बिनै सुनी प्रभु दौरति आए।
कर२ रुमाल धरि दुहनि हटाए ॥५॥
जोण जोणमुख पसार करि आवैण।
तोण तोण सतिगुरु दूर हटावैण।
चतुर घटी लगि केहरि रहे।
नर मुख अरि ऐसे बच कहे३ ॥६॥
जो सतिगुर दे हाथ बचावैण।
तिन की महिमा कोण बिसरावैण।
निस महि त्रासति निकटि बुलावति।
दिन महि दूर राखबे भावति ॥७॥
खाइ जाति हम तागति नांही।
१जाल लोहे दा।
२हथ (विज़च)।
३भाव शेराण ने।