Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ३) ५९
७. ।हमन अरंभ॥
६ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति ३ अगला अंसू>>८
दोहरा: पूरनमा वैसाख की, जबि दिन आयो सोइ।
मंगल करे अनेक बिधि, हरखति भे सभि कोइ ॥१॥
चौपई: नौबत बाजति प्रभु दरबारा।
लघु दुंदभि को शबद अुदारा।
संख नफीरन फूक भरी है।
धुनी अुठावनि अूच करी है ॥२॥
पणव पटहि अरु ढोल बिसाले।
मुरली गोमुख१ शबद अुठाले।
जै जगदंबा अूच अुचारे।
रंकन गन दे दरब अुदारे ॥३॥
सभिहूं जै गुर बाक सुनायहु।
बारहि बार प्रशाद ब्रतायहु।
धूप धुखावति फूलन माला।
चंदन आदि सुगंधति साला२ ॥४॥
समा जानि दिज केशव आयहु।
आशिख ततपतितेज३ सुनायो।
अपर बिज़प्र जे सतिगुर पास।
बेद घोख के करति प्रकाश४ ॥५॥
सभि हिंदुवाइन सिर को मौर।
खरे करे* दिज पूरन पौर५।
भयो कुलाहल अनिक प्रकारा।
केशव कहै सु कीनी कारा६ ॥६॥
गमने पुन प्रभु दिज संग लीने।
आशिख बाद मात मिलि दीने।
१नरसिंग्हे (रण सिंगे)।
२(अुह) थां सुगंधति कर दिज़ती।
३(आप दा) तेज प्रकाशे, असीस सुणाई।
४वेद धुनी ळ पगट करदे हन।
*पा:-कहैण।
५सारे ब्राहमण डिअुढी विच खड़े कीते।
६जो केशव ने कही ओह कार कीती।