Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ४८५

रज तन लगे वहिर निकसावै ॥६०॥
इस ने तौ सिर माटी पाई।
करहु बिचार न तुम अुचताई१।
कार अनुचित आप ने दीनि।
लाज कुटंब न तुम ने चीन ॥६१॥
अपर किरति को अब इस दीजै।
अुचित अनुचित बिचारि सुनीजै।
गुरु सुनि रामदास दिशि देखा।
मुख प्रसंन अुर प्रेम विशेा ॥६२॥
देखि दशा सतिगुर छकि२रहे।
-नदी प्रेम मम, मन इस बहे३।
बैदिक लौकिक रीति त्रिंनि सम।
प्रेम धारि जल ते४ ठहिरहि किमि ॥६३॥
प्रेम भगति मेरी रंग रातो।
तजे, न जानहि जाति सु पातो५-।
लवपुरि के पंचनि६ दिशि हेरि।
सहज सुभाइक गुर तिस बेरि ॥६४॥
अुर प्रसंन है भनति बचन को।
सभि जग छत्र दीनि मैण इन को।
माटी परि है सीस तुमारे।
गुर अभगति, तुम प्रेम न धारे७ ॥६५॥
जे इह बंस जनम नहिण धारे।
गिरति नरक महिण पितर तुमारे।
राम दास कर जोरि अुचारा।


१(हे गुरू अमरदास जी!)
आप भी विचार नहीण करदे अुचाई दी।
(अ) आप ही योगताई विचारदे।
२गदगद।
३मेरे प्रेम दी नदी इस दे मन विच वहि रही है।
४प्रेम रूपी जल दी धार (करके)।
५(प्रेम ळ) नहीण तिआगदा, ते नहीण जाणदा जात पात (दा मान)।
(अ) छज़ड दिज़तीआण सु (वैदिक लौकिक रीतां ते) नहीण जाणदा जात पात ळ।
६मुखीआण तरफ (सनमुख हो के कहिआ)।
७गुरू दे भगत नहीण हो ते तुसीण प्रेम नहीण धारिआ।

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