Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ४९३
दरशन हित गमनो जिस काल।
तहिण शंका करि राखो नेम।
दरशन करो न, छोरो प्रेम ॥४०॥
लखि इह समै सरूप सु मेरा।
करौण अनेकनि श्रेय अछेरा।
तूं महिमा जानति सभि रीति।
राखो नेम प्रेम तजि चीति ॥४१॥
इहां बिअरथ+ ब्रिलाप न करीअहि।
होहि न दरशन, आस निवरीअहि।
हटि अबि गमनहु गोइंदवाल।
तहिण मम दरशन करहु क्रिपाल१ ॥४२॥
श्री गुर अमर मोहि महिण२ कोअू।
भेद न जानहु, इक लखि सोअू।
जिस बिधि को सरूप अुर बाणछे।
तहां जाइ दरशहु सो आछे ॥४३॥
जग कारन तारन तन मेरा।
भगत रूप धरि सो लिहुहेरा।
शंका मन महिण करहु न कोई।
शरधा धारि दरसीअहि सोई ॥४४॥
सुनि कै माईदास अदंभा३।
पछुतावति मन मानि अचंभा।
-निशचै भयो मोर अपराधू।
इहां दरस कैसे अबि लाधू ॥४५॥
पारब्रहम श्री सतिगुर रूप।
जग महिण कीरति बिमल अनूप।
संजम सोण भोजन कहु खाना।
इस ने मोकहु कीनि हिराना४ ॥४६॥
अुर करि सरल मिलौण अबि जाई।
+पा:-ब्रिथा।
१भाव श्री गुरू अमरदास जी दा।
२ते मेरे विज़च।
३निरछल।
४खुआर, दुखी ।फा: हैरान॥।