Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ४) ४९३

६४. ।पीर मीआण मीर ते जहांगीर मेल॥
६३ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ४ अगला अंसू>>६५
दोहरा: जबि वग़ीर खां चढि गयो, बहुत बरख को पीर।
आयो पुरि के निकट, सुनि, गयो शाहु तिस तीर ॥१॥
चौपई: महां ब्रिज़ध जरजरी सरीर।
अंतर ब्रिती रहति धरि धीर।
जुग भौहनिके रोम बिसाला।
भए सुपैद झुके झपि जाला१ ॥२॥
मुज़द्रित लोचन अूपरि छाए।
बोलै कबहूं बहुत बुलाए।
जोर जोग के बैस बिसाल।
राखो निज सरीर चिर काल ॥३॥
वहिर जगत ते ब्रिज़ति अुठाई।
लेति अनद रस रिदे टिकाई।
जेतिक शाहु भए तिन आगे।
राखि अदब पद पंकज लागे ॥४॥
चढहि पालकी पर असवारी।
शाहु चलहि पद साथ अगारी।
बहु शरधा राखति अुर माही।
गयो शाहु तबि तिस के पाही ॥५॥
करी बंदगी बैठो जाई।
सरब नरनि की भीर हटाई।
जहांगीर इक, दूजो पीर।
अपर न राखो अपने तीर ॥६॥
बूझति भयो संत के लछन।
कहो पीर जी है जो बिचज़छन।
जिस ते सुखी रहै तजि शोक।
होति न दीन दौन हूं लोक ॥७॥
कहै पीर सुनि संतनि भूखन।
सभि बिकार ते रहै अदूखन।


१सारे भरवटिआण दे वाल चिज़टे ते झुके हन झिंमणीआण तक। ।हिंदी, झपकना = पलकाण बंद
करनीआण, झपि = पलक।

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