Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ(रुति ५) ४९८

५२. ।कवीआण दे कबिज़त॥
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दोहरा: बावन कवी१ हग़ूर गुर, रहित सदा ही पास।
आवैण जाहि अनेक ही, कहि जस, लेण धन रास ॥१॥
तिन कवीअनि बानी रची, लिखि कागद तुलवाइ।
नौ मण होए तोल महि, सूखम२ लिखत लिखाइ ॥२॥
विज़दाधर तिस ग्रंथ को, नाम धरो करि प्रीत।
नाना बिधि कविता रची, रखि रखि नौ रस रीति ॥३॥
मचो जंग गुर संग बड, रहो ग्रंथ सो बीच३।
निकसे आनद पुरि तजो, लूटो पुन मिलि नीच४ ॥४॥
प्रथक प्रथक पज़त्रे हुते, लुटो सु ग्रंथ बखेर५।
इक थल रहो न, इम गयो,
जिस ते मिलो न फेर ॥५॥
बाहठ पज़त्रे कहूं ते
रहे अनदपुरि मांहि।
तिन ते लिखे कबिज़त इहु
गुर जसु बरनो जाणहि ॥६॥
कितिक लिखौण आगे अवर
सुनि श्रोता चित लाइ।
गुर जस ते अुचटहु नहीण६
चतुर पदारथ दाइ७ ॥७॥कबिज़त: अनद दा वाजा नित वज़जदा अनदपुरि,
सुणि सुणि सुधि भुज़लदी ए नरनाह दी८।
भौ भया बिभीछणे ळ लकागड़ वज़संे दा,


१बवंजा कवी।
२बरीक।
पा:-नीत। पा:-नीत।
३(अनद पुर दे) विच।
पा:-आनदपुरा।
४नीचां ने।
५बिखर गिआ।
६गुरू यश (दे सुणदिआण) अुदास ना होवो।
७जो (जस) कि चार पदारथां दा दाता है।
८राजिआण दी होश भुज़ल जाणदी है।

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