Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ४) ५००
६५. ।वग़ीर खां वापस आइआ॥
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दोहरा: खां वग़ीर अुर हरख धरि, पहुचो सतिगुर पास।
नम्रि होइ बंदन करी, जल दरशन जिस पास ॥१॥
चौपई: पिखि श्री हरिगोविंद अुचारे।
आअु वग़ीर खांन गुर पारे!
सहत कुटंब कुशल है तेरे?
कहहु शाहु की सुधि जिम हेरे ॥२॥
क्रिपा भरे सुनि सुंदर बैन।
हुइ वग़ीर खां के तर१ नैन।
हाथ जोर कहि मिहर तुमारी।
जुकति कुटंब कुशल बिधि सारी ॥३॥
मैण रावरि ते करिहौण लाजा।
सरो न कैसे को शुभ काजा।
तअू आप सभि घट के मालिक।
हित अनहित लखि लिहु ततकालक ॥४॥
बरतै सरब आप की मरग़ी।
दास धरम क्रित ठानति अरग़ी।
चंदु संघारनि बिना न आछे।
चारी करति शाहु ढिग गाछे२ ॥५॥गुरु द्रोही दीरघ अपराधी।
ब्रिंद प्रपंच रचहि जनु बाधी।
छिमा आपि को कोण बनि आवै।
जबि लौ दुशट द्रिशटि दरसावै ॥६॥
जतन करहु मारनि को जबै।
किस ते रुकहु न, हति हो तबै३।
पठो शाहु मुझ पास तुमारे।
प्रेम बिनै जुति बचन अुचारे ॥७॥
-प्रान दान मुझ को गुरु दीनो।
१तरबतर (अ) नीवेण।
२जा जा के।
३जदोण मारन दा जतन करो तां फिर किसे दे रोकिआण ना रुकंा, तबै (= अुस वेले) मार देणा।