Sri Gur Pratap Suraj Granth

Displaying Page 503 of 626 from Volume 1

स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ५१८

मरहि१ अुठायो जो निज नाथ- ॥४०॥
सुनि पतिज़ब्रता बहु दुख पावा।
-बिन जाने मैण तोहि छुवावा।
होइ प्राति, पति मम मरि जाइ।
यां ते नहिण सूरज निकसाइ ॥४१॥
जो मेरो पति मरो जिवावै।
मारतंड२ को सो अुदतावै-।
इमि पतिब्रज़ता ने जबि कहो।
अुदो न रवि तम दहिदिश रहो ॥४२॥
दस दिन बीत गए इस भांती।
सगरो जगत भयो बिकुलाती३।
सरब सुरनि तबि कीनि अुपाइ।तिसि को पति मिलि दयो+ जिवाइ४ ॥४३॥
इमि पतिब्रता बिखै बहु बल है।
धरे शकति गमनै सभि थल है।
यां ते काबल ते चलि आई।
इक पतिब्रति, पुन सेव कमाई ॥४४॥
सतिगुर धान धरहि दिन रैन।
भई अधिक शकतीगन ऐन५।
ग्रिहसति बिखै जे भगति करंते।
गुर सेवहिण प्रभु को सिमरंते ॥४५॥
तिन समान दूसर नहिण होइ।
सुनि गुर ते हरखे सभि कोइ।
धंन धंन तुम प्रभू क्रिपालू!
दाता शकती ब्रिंद बिसालू ॥४६॥
पुन सो माई निकटि हकारी।
करी निहाल सु गिरा अुचारी।


१मर जावेगा।
२सूरज ळ।
३बिआकुल।
+पा:-देहु।
४मिलके जिवा दिज़ता।
५भाव सारीआण शकतीआण दा घर।

Displaying Page 503 of 626 from Volume 1