Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ५२७
५७. ।सिज़खां दे प्रशन दा अुज़तर, रामे ते श्री रामदास जी दी प्रीखा॥
५६ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १ अगला अंसू>>५८
दोहरा: सुनि सिज़खन के बचन को, संसै सुनो बिसाल।
क्रिपा द्रिशटि ते देखि करि, बोले गुरू क्रिपाल ॥१॥
चौपई: जग के बिखै एक नर नेमी।
नेम निबाहति चाहति छेमी१।
इक प्रेमी नर नेम बिहीना।
रैनि दिवस एकै लिव लीना ॥२॥
प्रेम प्रवाह वधै निति जिन के।
वसी होति पुरखोतम तिन के।
बिनां प्रेम सिमरन अरु सेवा*।
फल कुछ थोरो हुइ लखि एवा२ ॥३॥
इन दोनहु महिण परखहु प्रेम।
तारतंम जिम तिम लहिण छेम३।
प्रभु बसिहोति प्रेम लखि घनो।
अंग संग रहि नित हित सनो ॥४॥
परखे जाइण न जे तुम पासी।
जिस के रिदे प्रेम अबिनाशी।
तौ हम परख देहिण तुम ताईण।
राखहु गोप न कहहु कदाई४ ॥५॥
सिज़खन के संदेह बिनाशन।
निज पाछे थापन सिंघासन५।
परखन हित श्री सतिगुर पूरे।
जुगल हकारन करे हदूरे ॥६॥
रामा रामदास तबि आए।
पास बापिका गुरू सिधाए।
१मुकती।
*इस तुक तोण सपशट है कि निरी सेवा मिहर दा कारण नहीण, प्रेम, सिमरन ते सेवा त्रैए रल के
सतिगुरू दे मन ळ रीझांवदे हन।
२इस तर्हां जाणो।
३जिवेण प्रेम वज़ध घट होअू तिवेण सुख लैंगे।
४गुपत नहीण रखांगे, कदे कहि दिआणगे। (देखो इसे अंसू दा अंक ५० तोण ५३ जिज़थे गुरू जी वजा
के सुणा देणदे हन)। (अ) तुसीण हाली चुप रखो (इन्हां विचोण) किसे ळ कहो नहीण।
५टिकाअुण लई तखत ते।