Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्रीगुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ५२९

करो खेद सभि निशफल गयो।
टेढी कंध अुसारति भयो ॥१४॥
ढाहि देहु, नहिण देरि करीजहि।
हमरो कहो नीक सुनि लीजहि।
इति दिश सूधी भीत चिनावहु।
बहुर बेदका भले बनावहु ॥१५॥
सुनि रामे मन भंग बनो है१।
निज मत आछी जानि भनो है।
जिम तुम कहो तथा बनवाई।
को कारन भा रिदै न भाई ॥१६॥
सुंदर बनी बैठिबे लायक।
समुख खरे दरसहिण जहिण पाइक२।
मेरो दोश न या महिण कोई।
आप कही जिमि तथा सु होई ॥१७॥
कीनि जतन मैण भले सुधारी।
जिमि रावर ने रीति अुचारी।
इमि रामा कहि रहो घनेरा।
श्री गुर ढहिवाई तिस बेरा ॥१८॥
निज कर छरी३ लकीर निकारी।
कहो करहु इस रीति सुधारी।
तहिण ते चलि दूसर दिश गए।
रामदास ढिग ठांढे भए ॥१९॥
पद अरबिंद बंदना करि कै।
खरो रहो निज ग्रीव निहुरि कै४।
श्री गुर अमरदास पिखि कहो।
हमरो आशय तैण नहिण लहो ॥२०॥
जथा बताई तथा नकरी।
बज़क्र भीत५ रचि कीनस थरी।

१दिल टुज़ट गिआ।
२जिज़थे (बैठिआण) सनमुख खड़ोके दरशन करनगे सिज़ख।
३हज़थ दी सोटी (नाल)।
४गिज़ची (सिर) निहुड़ाइके।
५टेढी कंध।

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