Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ५३६
गुर सिज़खन हरखावन वारी१।
जल पीए निरमल अुरकारी२ ॥७॥
करहिण शनान दान जो देवैण।
गुरबानी पढि करि सुख लेवैण।
तिन को फल होवै अबिनाशी।
करहिण बिनाशन जम की फासी ॥८॥
इस बिधि अधिक महातम तांहि।
श्री गुर अमरदास मुख प्राहि।
करहिण आप इशनान सु नीर।
होइ बहुत सिज़खन की भीर ॥९॥
करहिण चौणप सोण मज़जन सारे।
बहुर सराहहिण सुजस पसारे।
धंन गुरू कीनसि अुपकारा।
शरन परहि तारो गन भारा३ ॥१०॥
इक लुहारतहिण कार करति है।
काठनि की पौरी सु घरित है।
अपर काज जो होहि सु करिही।
काशट लोहा निज कर घरिही ॥११॥
जल के निकट सपत सौपान४।
लाइ काठ तिन रची महान।
जिस ते जल सुखेन ही लेय।
न्हान पान जो चहै करेय ॥१२॥
तिस की क्रिज़ति हेरि गुर पूरे।
सुप्रसंन बुलवाइ हदूरे।
सुनि आइसु को ततछिन आवा।
बडभागी चरनन सिर लावा ॥१३॥
तिस के मसतक धरि करि हाथ।
मंत्र सु सज़तिनाम दिय नाथ।
१प्रसंन करन वाली।
२रिदा निरमल करन वाली।
३जो शरनी पिआ (तिस) भारी समूह ळ तारिआ।
४पौड़ीआण सज़त।