Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ५५२

६०. ।दोखी तपा। मथो मुरारी॥
५९ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १ अगला अंसू>>६१
दोहरा: श्री गुर क्रिपा निधान बर,
सकल लोक सुखदान।
भाग हीन निदक लहति,
निज करमन फल जानि१ ॥१॥
जैसे भानु अुदे भए,
सभि जग तिमर नसाइ।
दुरभागी पेचक२ तअू,
अंध भए दुख पाइण ॥२॥
चौपई: सभि जग सतिगुर के गुन गावै।
दरस परस मन बाणछत पावै।
तपा हुतो इक गोइंदवाल।
सुनि जस+ जरै होति बेहाल ॥३॥
मरवाहन को प्रोधा३ जानो।
अुस जोगी को मिज़त्र समानो।
जाण कअु श्री गुर अमर प्रकाश।
मज़ध खडूर दंड दो रास४ ॥४॥
तां की कथा प्रसिज़ध सु पाछै।
बरनन भई प्रकाश सु आछै।
दीन दाल गुर अंगद केरी।
करी अवज़गा५ दुशट घनेरी ॥५॥सो गुर अमर सहार न सके।
पुन इह तपा निद गुर बके।
श्री सतिगुरू नाम रसु माते।
अज़जर जरै६ रहैण सुख दाते ॥६॥


१भागहीन निदक जानोण अपने करमां दा फल (दुख) लैणदे हन।
२अुज़लू।
+पा:-सुनि सुनि।
३गोइंदे दी जात मरवाहा सी, अुन्हां दा प्रोहत।
४बहुता।
५बेअदबी, निरादर।
६अजर (करामात) जर रहे।

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