Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ(राशि ११) ६७

९. ।गुरू जी दा प्रगट होणा॥
८ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ११ अगला अंसू>>१०
दोहरा: सागर प्रेम निमगन है,
मज़खं रिदै अनद।
भेव न किसू जनावई,
संग नरनि के ब्रिंद ॥१॥
चौपई: जबि गुरु घर के सनमुख आवा।
दास हुतो माता प्रति गावा।
सिख इह पूरन शरधावान।
आयो चलि कै दूर महान१ ॥२॥
सिदक आप के सुत पर होवा।
पूरब आइ पता कुछ जोवा।
अबि बिदतावनि चाहति गुर को।
संसै दूर कियो इन अुर को ॥३॥
परसोण हम बैठे गुर पास।
इस सिख की गति करी प्रकाश।
श्री गुरू ने तबि बाक बखाना।
-हम को जो बिदताइ महाना ॥४॥
तिह द्रगाहि मैण हुइ मुख कारो।
अुज़ग्र स्राप२ इस भांति अुचारो।
इस बच की सुधि सिख को नांही।
यां ते कहौण जाइ मैण पाही३ ॥५॥
बिगरहि काज प्रथम सुधि* पाइ।
तौ सुजान करि लेतिअुपाइ।
अपनि भले कौ आवति धाई।
अस नहि बनहि बुरो हुइ जाई ॥६॥
इस पर करौण सु इह अुपकार।
सुनहि जि सुधि, करि लेहि बिचार।
अस मन ठानि समुख तिस गाइअु।

१बड़ी दूर तोण।
२कठन सराप।
३(सिज़ख दे) पास जाके अुसळ दज़सदिआण।
*पा:-सुख।

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