Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ५५८

बैठि रहो तहिण केतिक बेरी ॥३४॥
आवति जाति सिज़ख जो अहैण।
अवलोकति इस को बच कहैण।
गुर दरशन कुशटी नहिण पावै।
तौ पावै जे आप बुलावैण ॥३५॥
सुनि कै शोकारति चित होवा।
-जे अबि मोहि न दरशन होवा।
आवन श्रज़म बाद हुइ मेरा।भयो न फल प्रापति दुख घेरा१ ॥३६॥
मैण निरभाग जहां चहि जाअू२।
निफलहि तहां नहीण कछु पाअूण।
बिन दरशन गमनो किति नांही३।
कै मरि रहौण इसी थल मांही ॥३७॥
धिक जीवन अबि नासौण प्रान।
गुर के दर पर परोण सथान४-।
द्रिढ करि प्रेम थिरो दर आगहि।
सनमुख बैठहि, नहिण थल तागहि ॥३८॥
प्रेम बिसाल गुरू* महिण धरे।
मुख ते निति गुर गुर गुर करे।
कबि कबि गावहि अूची धुन ते।
आवति जाति सिज़ख सभि सुनते ॥३९॥
गया कछोटा लधा गावै।
अूचे टेरति५ गुरू सुनावै।
खरे आनि होवति सुनि पाहू।
कहि कहि पुनहि गवाइसि+ तांहू६ ॥४०॥


१मैण दुख नाल घेरे होए ळ फल ना प्रापत होइआ।
२चाहो जाणदा हां।
३जाणदा (मैण भी) किधरे नहीण।
४गुराण दे दरवज़जे दी थां ते पिआ रहां। (अ) गुराण दे दरवाजे पिआ (रहां कदे) थां पै जावाणगा।
*पा:-गुरनि।
५बोलके।
+पा:-गवावैण।
६कहि कहि के फिर फिर तिस पासोण गाइन कराणवदे हन।

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