Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ३) ५६५६५. ।भाई रूप चंद, भीवा आदि सिज़खां प्रति अुपदेश॥
६४ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ३ अगला अंसू>>६६
दोहरा: रूप चंद भीवा जुगल, बसहि सिर्हंद मझार।
किरत करहि सिज़खनि मिलहि, बाणटति अचहि अहार ॥१॥
चौपई: पुरब दिवस महि असन बनावहि।
सिज़खनि को धरि भाअु अचावहि।
एक मुल तिन के ढिग आइ।
सौणपी दीनार जु समुदाइ ॥२॥
धरि दिज़ली को गमनो सोइ।
लिखो वही पर नहि इन दोइ१।
बिसर गए नहि रिदै संभारी।
धरी रही जहि धरि इक बारी२ ॥३॥
पंच मास महि हटि सु आयो।
दोनहु को निज बदन दिखायो।
हित जाचनि धन बाक सुनावा।
मैण तुमरे ढिग धरि गमनावा३ ॥४॥
वही खोलि देखति निज लिखो।
नहीण नाव मुगलहि को४ पिखो।
हमरे पास धरी नहि तोही।
वही नाम को पिखो न मोही ॥५॥
झगरति झगरति करे शिताब।
हित नाअुण ढिग गए नबाब।
तहां तेल को धरो कराहा।
तपत करो पावहु कर माहा५ ॥६॥
पंच मुहर को करनि प्रसादि।
सिज़खनि गुरसुखसुज़खी आदि६।
मुल शीरनी पीरनि मानी।


१इन्हां दोहां ने।
२जिज़थे इक वेर रज़खी सी।
३धर गिआ सां।
४वही विच नाम ळ।
५विच हज़थ पावं लई।
६पहिले सिज़खां ने गुरू दी सुज़खंा सुज़खी।

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