Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ५७६
६२. ।विज़दाभिमानी बेनी पंडत निसतारा। फिरा, कटारा प्रति आगा॥
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दोहरा: इक पंडित बेनी१ हुतो,
बिज़दा बिखै प्रबीन।
नाइ शासत्र ते आदि जे,
रसना अज़ग्र सु कीन२ ॥१॥
चौपई: देश बिदेशन बिखे हमेश।
बिचरति बिज़दा मान बिशेश।
जहां पठति विज़दा३ सुनि लेहा।
तहिण पहुणचै चरचा हित एहु+ ॥२॥
लोक ब्रिंद महिण लिखै प्रथम इमि४++।
होइ पराजै चरचा महिण किम५।
तिस के पुसतक छीनै सारे।
जीतनि हारो लेहि संभारे६ ॥३॥
लोक मिलहिण बहु चरचा मांहि।
सुनै सरब ही रिदे अुमाहि।
बेनी पंडत जीतहि जबिहूं।
दिज ते पुसतक छीनहि सभिहूं ॥४॥
सुनहिण धनी नर धन अरपावहिण।
बहु कीरति को कहैण सुनावहिण।
इस बिधि बहुते नगर मझारा।
फिरति लदायो पुसतक भारा ॥५॥अुशटर७ एक लयो संग फिरिही।
यां ते बहु हंकार सु धरिही।
बिज़दाअरथी पठिबे कारन।
१इक पंडत दा नाम।
२भाव याद कीते सन।
३विदा पड़्हिआ होइआ।
+पा:-देह।
४लोकाण विच पहिले लिखके (ला देणदा सी) भाव इशतिहार दे देणदा सी।
++पा:-जहां जाइ तहिण लिखे प्रथम इम।
५(जे) चरचा विच किसे तर्हां (कोई) हार जावेगा तां।
६जिज़तं वाला अुन्हां पोथीआण ळ संभाल लवेगा।
७अूठ।