Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ५८४

अबि ते फुरहि सु बाक तुमारा ॥४९॥
शकति बिसाल होहि तुम मांही।
तुम ढिग मंत्र जंत्र फुरि नांही१।
जहिण कहिण* मठ२ जोगी के होइण।दिहु निकास पुन भगनहु सोइ३ ॥५०॥
जोगी तुम को देखि न सज़कैण।
भ्रम चित होइ भागबो तज़कैण४।
धरमसाल सभि ग्राम करावहु।
भजन कीरतन करि सुख पावहु ॥५१॥
नाम दान इशनान द्रिड़ाइ।
पावन देश करहु सभि जाइ।
आनि मिलहिण नर गन तुम जोइ।
पूजहिण चरन बिनै कहिण सोइ५ ॥५२॥
इमि कहि निधि सिज़धि+ गुर दीनसि।
दे बर दान बिदा जुग कीनसि।
नमसकार करि धरि पग धाना।
प्रभु आगा ते कीनसि पाना ॥५३॥
बड जोगी के मठ तहिण गए।
त्रास दीन तिसु दारुन भए६।
तबि तिन मंत्र जंत्र बल लावा।
अुलट परो जोगी७ दुख पावा ॥५४॥
अगनि लगी तन मनहुण बिसाला।
निज ते बडो जानि तिस काला।
भयो महंत पलावनि तबै।


१तुसां अुते जंत्र मंत्र नहीण फुर सकेगा।
*पा:-जहिण जहिण।
२जोगी दे रहिं दी थां।
३कज़ढ दिओ (जोगीआण ळ), भंन सुज़टो (मठ)।
४नसंा ही तज़कंगे।
५पूजनगे (तुहाडे) चरन ते बेनती कहिंगे ओह।
+पा:-निधि सिज़धां।
६तिस (जोगी) ने (सिज़खां ळ) डराया (सिखअगोण) मग़बूत हो गए। (अ) भिआनक त्रास अुसळ देणदे
भए।
७(मंत्र जंत्र) अुलट के जोगी ते पिआ।

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