Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ५८७
६३. ।बालक जिवाअुणा। यम ळ गोइंदवालोण रोकंा। अकबर ने आअुणा॥
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दोहरा: सतिगुर दीना नाथ जी, दया सिंधु सिरमौर।
अधिक प्रकाशति जग भए, मम नहिण को कित और ॥१॥
चौपई: अुचित त्रिलोकी दुख केहरता१।
गोणदवाल पर क्रिपा सु करता।
जथा अजुज़धा रघुबर पारी।
प्रजा सरब सुख दै दै पारी२ ॥२॥
जिमि स्री क्रिशन दारका रहे।
निज ढिग बासन३ के दुख दहै।
तिस बिधि सतिगुर गोइंदवाल।
नाना संकट कटे कराल ॥३॥
अपर कशट की गिनती को है।
दारुन काल न आन सको है४।
अवधि बिते नर जो मरि जाइ।
क्रिपा करहिण तिस देहिण जिवाइ ॥४॥
पुरी बिखै नहिण म्रितु को पावहि।
गुर प्रताप ते जियति रहावहिण।
जिस के घर को नर मरि जाइ।
सो अुठाइ गुर आगै लाइ ॥५॥
तबि क्रिपाल निज चरन छुहावति।
तातकाल तिस म्रितक जिवावति।
जिस को नर अुठाइ लै आवहिण।
सो निज पग ते सदन सिधावहि ॥६॥
इमि प्रताप गुर को नर पाइ।
बसहिण सुखी कीरति बिरधाइ५।
प्रापत तन मन की कज़लान।
नर अरोग निति रहैण सुजान ॥७॥
१त्रिलोकी दे दुख दूर करन दी योगता वाले (गुरू अमर देव जी)।
२पालन कीती।
३कोल रहिणदिआण दे।
४भिआनक मौत बी नहीण आ सकीहै।
५(स्री गुरू जी दी) कीरती वधे।