Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ५९४

बह मोले शोभा बड होती।
सुंदर सूखम बसत्र सुहावति।
होति सतूयमान१ चलि आवति ॥४७॥
लाखहुण सीस नम्रि* जिसु आगे।
महां प्रतापवंति दुति जागे।
कंचन छरीदार२ अगुवाअू।
हाथ बैत धारी समुदाअू ॥४८॥
बसत्र बिभूखनसुंदर जिन के।
चहुण दिश टोलि चलति संग तिन के।
दरशन करति नमि हुइ बैठे।
अदब करे करि पाद इकैठे३ ॥४९॥
कुसल प्रशन करि आपस बिखै।
प्रेम करे गुर दरशन पिखैण।
-नहीण देग ते अचो अहारा-।
इही नेम गुर रिदे चितारा ॥५०॥
तूरन अकबर को मन प्रेरा।
हाथ जोरि बोलो तिसु बेरा४।
गुर साहिब! का खाना खावहु?
किस महिण रुचि चित ते अुपजावहु? ॥५१॥
सतिगुर कहो सु चित रुचि अूना५।
होति ओगरा लवन बिहूना।
तिस को एक बार कर खावनि६।
अशट जाम लगि हुइ त्रिपतावन ॥५२॥
सुनि सुलतान बिसमता पाइव।
-ब्रिज़ध देहि नहिण ओज रहाइव।
बहुर निबल ही करति अहारा।


१अुसतती वान।
*पा:-नमहिण।
२चोबदार।
३इकज़ठे करके, संकोचके।
४तिस वेले।
५रुची तोण बिना।
६खांा करदे हां।

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