Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ५९७

६४. ।बीबी जी ळ सोने दी इट। लगड़े दी लत। सिखी दी रहिंी॥
६३ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १ अगला अंसू>>६५
दोहरा: रामदास हित ग्राम सभि, लीन गुरू महाराज ॥
जान भविज़खत सरब गति, बरधन जथा समाज१ ॥१॥
चौपई: श्री सतिगुर इमि भगति बिथारति।
बखशश करति देखि करि आरति।
छोटी सुता सेव निति करै।
लखहि प्रभू२ इमि भाअु सु धरै ॥२॥
पित करि नहिण जानहि बहु सानी।
भाअु भगति को तन जनु भानी३।
मनहुण कीरती रूप करो है४।
कै र्री श्री५ निज बेसु धरो है ॥३॥
बड भागा पतिब्रता सुशीला।
नम्रिभूत निति सुमति गहीला६।
अपर निकट को होन न पावहि।
इह धरि शरधा सेव कमावहि ॥४॥
जथा प्रसंन होहिण पितहेरि।
तता करहि निति सेव बडेर।
पहिर रात ते करहि शनान।
तबि पहुणचहि दरशन हित ठानि ॥५॥
मन करि बंदन करहि सदीव।
पिता प्रमेसुर जानहि जीव७*।
बहुर सेव हित जबि कबि आवै।
भानी क्रिज़ति८ गुरू मन भावै ॥६॥
इक दिन बैठी बनि कै दीन।


१भाव पंथ ने वधंा है।
२परमेशर रूप जाणके।
३मानो बीबी भानी जी भाअु भगती दा ही सरूप है।
४मानो कीरती ने रूप धार लिआ है।
५प्रताप शील लछमी ने ।सं: र्री = प्रापत करना। देव माता। भैरव॥।
६स्रेशट बुधी ग्रहण करन वाली।
७पिता जी ळ प्रमेसर रूप जाणके जीअुणदी सी।
*पा:-पिता प्रमेश, न जानहि जीव।
८सेवा।

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