Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ(राशि १) ६१५
६६. ।भाई पारो प्रलोक गमन। मोहरी जी ळ लख टका दिखाइआ॥
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दोहरा: इक दिन श्री सतिगुरू जी,
अमरदास सुख रासि।
करो हकारन एकलो,
पारो अपने पासि ॥१॥
चौपई: परम हंस आवसथा जाणही।
जड़्ह चेतन इक ते बिलगाही१।
जिम पानी पै२ इक हुइ जाइ।
हंस करहि दोइन प्रिथकाइ३ ॥२॥
तुरीआ४ महिण ब्रिति थित नित रहे।
ढिग बिठाइ तिह सोण गुर कहे।
मन मेरे महिण अब इम आवै।
गुरता गादी तोहि बिठावैण ॥३॥
परमहंस मेरो ई रूप५।
परम अवसथा सदा अनूप।
बशति हौण मैण जग गुरिआई।
करहु अुधार लोक समुदाई ॥४॥
भगति जगति महिण अधिक बिथारहु।
परअुपकार कार को सारहु।
कर जोरे पारो पग परो।
त्राहि त्राहि करि बचन अुचरो ॥५॥
प्रभु जी गुर सिज़खी मुझि भावे।
गुरिआई सतिगुरहिण सुहावै।मुझ पर क्रिपा द्रिशटि कहु धरीऐ*।
गुर सिज़खी पद बखशन करीऐ+ ॥६॥
१जो इज़क हो रहे हन (अुन्हां ळ) वख वख (अनुभव) करना।
२दुज़ध ते पांी।
३वज़खो वज़ख।
४चौथे पद।
५(तुसीण) परमहंस मेरा ही रूप हो।
*पा:-करीअहि।
+पा:-धरीअहि।