Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ११) ७६

१०. ।सोढीआण दी ईरखा॥
९ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ११ अगला अंसू>>११
दोहरा: संगति सभि इक बार ही, दौरि दौरि नरि आइ।
दीरघ दरशन१ सतिगुरू, दै हैण दरस दिखाइ ॥१॥
चौपई: बसत्र बहुत जिन मोल अुदारे।
धरी अशरफी२ गुरू अगारे।
देखि देखि सिख चौणप करंते।
आनि अुपाइन निज अरपंते ॥२॥
पंचांम्रित को लाइ कराइ।
को अरपति है बसत्र सुहाइ।
कितिक रजतपण लाइ चढावहि।
पशमंबर को ले अरपावहि ॥३॥
भई भीर बहु नर की आइ।
बंदन करहि बदन दरसाइ।
जै सतिगुरु जै सतिगुर केरी।
सभि ते महिमा अधिक बडेरी ॥४॥
श्री नानक की जोति अुदारा।
अबि तिस ते तुम अहो अधारा।
सिज़खनि सकल कामना जोई।तिन के निरबाहक तुम होई ॥५॥
दुरे रहे नहि दरस दिखावा।
किम छपि सकहि भानु अुदतावा।
करहु अुधारनि सिज़खनि करनि।
लहैण अनद दरस तुम हेरनि ॥६॥
इम कहि कहि बहु भेट चढावहि।
बिनै कामना सहित सुनावहि।
को इक सिज़ख कहै तिन मांही।
जिन के रिदै अशरधा नांही ॥७॥
करम अनिदत सभि इन केरे।
महां भाग संतोख घनेरे।


१भाव लमरे सरीर वाले।
२मोहराण।

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