Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ४) ८०
१०. ।बरात दी चड़्हाई॥
९ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ४ अगला अंसू>>११
दोहरा: नारि मोहरी की सुमति, मिलि गंगा के संग।
नेहु जनावति अधिक ही, करि करि ह्रिदै अुमंग ॥१॥
पाधड़ी छंद: गन अबला अपर मिलति संग।
सनमानित सभि कहि म्रिदुल गंग।
दातू सु त्रिया मिलि अनद कीनि।
हित बैठनि चारु आसनि सु दीन ॥२॥
पन बुझनि लगी कित हरि गुविंद?
दिखरावहु मुहि लालस बिलद।
कहि गंग गयो अबि वहिर थान।
आए सुने सु जबि प्रीति ठानि१ ॥३॥
हित मिलनि करतिबड चाव चीत२।
तिन निकट होहिगे धरत प्रीत।
इमि कहि सु दास भेजो तुरंत।
घर बिखै आनि मिलिबो चहंति ॥४॥
श्री अमर पुज़त्र के निकट हेरि।
लीनसि हकार जो गयहु चेर।
निज साथ आनि करि घर मझार।
सभि त्रियनि हरख सूरति निहारि ॥५॥
त्रिय मोहरी जु, गहि कंठ लाइ।
बहु चीत प्रीत गोद सु बिठाइ।
सिर हाथ फेरि मुख हेरि हेरि।
करती दुलार बहु फेर फेर ॥६॥
श्री हरि गुविंद कर बंदि बंदि।
सभिहूंनि बंदना करि अनद।
सगरीनि गोद ले करि दुलार।
चिर जीव आशिखा देति पार ॥७॥
नर नारि मेलि होयहु बिसाल।
करि जथा जोग सेवा सभालि।
१जदोण हरि गोविंद जी ने (गोणदवाल दे सबंधी) आए सुणे तां प्रीत नाल बाहर गए हन, किअुणकि।
२मिलन वासते चित विच वज़डा चाअु करदे सन।