Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ८४
ले प्रविशो अुतंग बड जाणहि१ ॥४४॥अूचहि खरे होइ दिखारायो।
निज घरु अरु सभि नगर सुहायो।
सभिनि बिलोकति बोले बानी।
भाई रामकुइर ब्रहगानी ॥४५॥
दोहरा: सुनहु खान! रामदास के, ग्राम अुजारो लूट।
वसतु खसोटी सभिनि ते, गन मनुजन२ कहु कूट ॥४६॥
चौपई: सो सगरी तुम ने फिरवाई३।
हमरो ग्राम बसहि पुनि आई।
तुमरो नगर जु बसहि बिलद।
अर अूचे घर सैल मनिद४ ॥४७॥
इह जबि लूटे जाहिण अुजारे।
कौन फिरावहि वसतू सारे?
करहि कौन इन की रखवारी?
कहां बसहि इहु नगरी सारी? ॥४८॥
सुनति खान कहि इह का आप?
देति मोहि अर पुरि को स्राप।
५हम तो सहिज सुभाइक बूझे६?
तुम को स्राप कुतो इह सूझे ॥४९॥
-महां नगर इह अुजरै सारा।
कहां बसहि-, हम एव अुचारा।
हमरी वसतु तुमहिण फिरवाई।
तुमरी लुटे कहां कर आई७ ॥५०॥
सुनति खान पुनि तूशनि रहिओ*।
त्रास धरे अुर कुछ नहिण कहिओ।
१अुज़ची सी जो बड़ी।
२सारे मनुखां ळ।
३मोड़के दिज़तीआण हन।
४परबत वरगे।
५भाई रामकुइरजी बोले।
६पुछिआ।
७किवेण (तैळ) प्रापत होवेगी।
*पा:-गयो।