Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ११) ८२
११. ।धीरमज़ल वलोण गोली चलाअुण दी गोणद॥
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दोहरा: धीरमज़ल के निकटि जबि, सभिहिनि के नर जाइ।
चिंतातुर मतसर महत, चितवति अनिक अुपाइ ॥१॥
चौपई: इक मसंद तबि जोरे हाथ।
भाखति धीरमज़ल के साथ।
तिस के घर महि हुतो अुदारा१।
जिसबसि लेन देनि बिवहारा ॥२॥
हुतो पुशट सो धनी बडेरा।
मानहि जिस के कहो घनेरा।
सभि महि जिस के बाक प्रमान।
धीरमज़ल अनुसारी जानि ॥३॥
शीहा नाम तिसी को अहै।
गुर सोण द्रोह करति बहु रहै।
लोभी कुटिल कठोर महाना।
दुशट मूढ शुभ पंथ अजाना ॥४॥
सुनहु गुरू! तुम मेरी बात।
महिमा रावरि जाइ बिलाति।
निकटि आप ते तिनहु पुजायो।
नहि किस ते लघु भी डरपायो ॥५॥
जबि के सिज़ख मानि हैण आपी२।
आयो इतो न दरब कदापी।
एक जाम सो निकसो बाहर।
सभि महि अजहु भयो नहि ग़ाहर ॥६॥
जितिक हग़ारनि को धन आवा।
इसी प्रकार जि होहि चढावा।
सैन सकेलनि ब्रिंद सुखारे।
ऐशरज बधहि, घटहि तुम सारे ॥७॥
श्री गुरु हरिगोबिंद हरिराइ।
तिन ते अधिक कि सम बन जाइ।
१वज़डा।
२आप ळ।