Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (ऐन १) ८२

नहि होवहि सिज़खी निरबाहा।
लोक बिसिदक होति अुर मांहा।
सकल देश भेजो इम कहि कै।
रावर के संकट सभि लहि कै ॥४०॥
श्री गोबिंद सिंघ सुनि रिस छाई।
अुज़तर कहो बीच समुदाई।
सिज़ख होति लैबे अुपदेशू।
देहु हमै बिज़प्रीत विशेशू१ ॥४१॥
हम को चाह नहीण तुम केरी।
पूरब भाज गए बिन हेरी।
गए सु गए रहो सभि भागे२।अबि को३ तुमैण बुलावन लागे? ॥४२॥
हमरे झगरे चहहु निबेरा।
कहां गए तुम पूरब वेरा।
श्री गुर अरजन को भा कारन।
नहि गमने४ नहि करो अुचारनि ॥४३॥
निज निज सदन थिरे डर धारो।
सकल पंचायत को बल हारो।
पुन नौमे पतिशाहु भए हैण।
दिज़ली महि सिर देन गए हैण ॥४४॥
तबि माझे आदिक सभि देश।
भे तूशन धरि त्रास विशेश५।
किनहूं कहो न शाहु अगारी।
परो न कोअू झगर मझारी ॥४५॥
कोण न निबेरो तबि किस जाइ।
तबि जानति, जबि लेति छुटाइ।


१सगोण अुलटे साळ (अुपदेश) दिंदे हो
।विशेश=विशेश करके, भाव सगोण॥।
२जो गए सो गए हुण तुसीण सारे नठे रहो। (अ) जो गए हन अुह तां गए जो भागां वाले सन अुह
रहि पए सन।
३कौं।
४(तदोण) ना गए (पातशाह पास)।
५भाव बहुते डरदे मारे चुज़प कर रहे साओ।

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