Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ४) ८७

११. ।बरात दा ढुकाअु॥
१०ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ४ अगला अंसू>>१२
दोहरा: खान पान अुज़तम करो, निसा बिखै परि सोइ।
श्री सतिगुरू अरजन निकटि, हरि गुविंद तबि होइ ॥१॥
पाधड़ी छंद: जबि रही जामनी आनि जाम।
सिमरनि लगे सु करतार नाम।
रागी रबाब सु म्रिदंग संगि।
इन को बजाइ गावति अुतंग ॥२॥
श्रुत सुखद गाइ गुरु शबद राग१।
सिख सुनति प्रेम करि महिद भाग।
इशनान आदि सभि सौचि कीनि।
नर अुठे सकल मति नाम भीनि ॥३॥
धंन धंन सतिगुरू भनति बैन।
सतिनाम श्रोनि सुनि होति चैन।
पुनि बजे बाज पिखि प्रातकाल।
सभि थिए तारि अुर मुद बिसाल ॥४॥
असवारु भए सभि सजति जानु।बड अुठो शबद नहि सुनिय कान।
दिन चढे चलति हिम रुत महान।
नहि लगहि सीत हुइ तेज भानु ॥५॥
संदन तुरंग अरु बहिल जाल२।
बादित बजंति, चालति अुताल।
बड धूलि अुठति वाहन चलति।
गन शुतर गमनि भारनि अुठति ॥६॥
गन आइ जु मंगति पंथ बीच।
सभि लहैण दरब हुइ अूचि नीच।
जसु भनति ग्राम जे राह मांहि।
ढिग आइ जाचि हटि छूछ नांहि* ॥७॥
जनु धनु गन घन बरखंति जाति।


१कंनां ळ सुख देण वाले गुर शबद राग विच गावेण।

२सज़भे।
*पा:-नहि छूछ जाहि।

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