Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (ऐन १) ८९
कहैण चहूं दिशि झाड़ अुजाड़ ॥२७॥
नाहक रुकहु बीच लशकर के।
घेरा पाइ लेहि बल करि के।
आगे चलहु कितिक थल और।
खरे होइ हैण आछी ठौर ॥२८॥
प्रिशटिआपनी रखहि अुजार।
शलख तुपक की करिहैण मार।
जेतिक हते जाइ हति करि कै।
परे जोर ते जै हैण टरि कै ॥२९॥
इह मत हमरो मानहु गुर जी।
रुकहु न आप करति सभि अरग़ी।
इम बहु बार बार हुइ दीन।
कहो जोरि कर सुनहु प्रबीन! ॥३०॥
तजि खिदराणा कुछक पयाने।
खरे भए प्रभु लरन टिकाने१।
इतने बिखै सिंघ जे चाली।
लरन हेतु करि धीर बिसाली ॥३१॥
गुर की दिशा अुताइल आए।
तुपक तार तोड़े सुलगाए।
सर खिदराणा तिनहु निहारा।
आइ प्रवेशे तांहि मझारा ॥३२॥
मनहु दुरग है करो पसिंद।
थिरहु इहां रण करहि बिलद।
इत ही तुरकनि को बिरमावैण।
गुर के पाछे नाहन जावैण२ ॥३३॥
आपस महि मसलत करि थिरे।
लरिबे कहु तिआर हुइ खरे।
केतिक सिंघनि बहुत जनावनि।
१इह कुछ दूर इक जंगल दे विच टिज़बी हैसी जो हुण गुरदवारा है, हुण शहिर तोण इह थां थोड़ी
दूर पर है। देखो अज़गे अंसू ११ दा अंक २।
२भाव, असीण गुरू जीदे मगर ना चज़लीए एथे ही तुरकाण ळ भुलेवाण देके रोक लईए (अ) तुरक
गुरू जी पिछे नां जाण।