Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ९७

-हम तो नहिण ग्रिहसत को करिहीण।
रहै बंस इस ते जग थिरिही-।
सहत भारजा गयो, न आयो।
अवलोकति नर गन बिसमायो ॥१९॥
धरमचंद ते चालो बंस।
सभि बेदी अूजल जिम हंस।
सिरीचंद बय भई बिसाला।
जग महिण देहि धरी चिर काला ॥२०॥
सदा जोग रस भोगनि करते।
जगत बाशना नहिण मन बरते।
जहांगीर जब भा तुरकेश१।
सुनि कै इनि को सुजसु बिशेश ॥२१॥
कई बार निज मनुज पठाए।
बिनै ठानि कै निकट बुलाए।
करामात को चाहति देखा।
कौतक जिस के रिदै बिशेखा॥२२॥
गोदड़ीआ२ सेवक रहि नाले।
तिस के कंध चढहिण जब चालेण।
नांहि त टिके रहैण निज थान।
सदा लगाए राखहिण धान ॥२३॥
तिस पर चढि लवपुरी सिधारे।
सनै सनै तहिण पहुणच सुखारे।
इक दिन डेरा तहां टिकाए।
पुन तुरकेशुर निकटि बुलाए ॥२४॥
जन३ गोदड़ीए पर आरूढि४।
पहुणचे तहिण आशै जिन गूढ।
पहुंच तीर जबि* सनमुख५ दीखा।


१तुरकाण दा बादशाह।
२सेवक दा नाम।
३सेवक।
४असवार होके।
*पा:-जहांगीर जब।
५साहमणे।

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