Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ४) १०९१४. ।जंग॥
१३ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति ४ अगला अंसू>>१५
दोहरा: इम दुहिदिशि ते ओरड़े१, बीर बड़े बलवंड।
प्रथम तुफंगनि भेड़ करि, भयो घुमंड प्रचंड२ ॥१॥
रसावल छंद: जसंवाल धायो। पदाती३ लिआयो।
चली यौण तुफंगैण। महां एक संगै४ ॥२॥
अुदै सिंघ दौरा। मचो भूर रौरा।
छुटे तीर गोरी। भिरे दौन ओरी ॥३॥
मनो पौन प्रेरे। भए मेघ नेरे।
परे ब्रिंद ओरे५। क्रिखी सूर फोरे६ ॥४॥
महां तेज तज़ते। रसं बीर रज़ते।
चली शूंक गोरी। रिदा सीस फोरी ॥५॥
लगे घाइ घूमे। परे झूमि भूमे।
किसी टांग टूटी। रिदै धीर छूटी ॥६॥
किसू घाव छाती। परो भूम घाती७।
कसै को तुफंगा। गजं काढि चंगा ॥७॥
ठुकैण डालि गोरी। डभै शज़त्र ओरी८।
अुठावैण तड़ाके। बडे बीर बाणके ॥८॥
करैण सिंघ हेला। पहारी न झेला।
पदांती९ गवारे। परे एक बारे ॥९॥
दोहरा: इत आलम सिंघ दा सिंघ, मिलि बचिज़त्र सिंघ बीर।
अुदे सिंघ सोण तबि कहो, रहुगुर सुत के तीर ॥१०॥
पाधड़ी छंद: हम सभि पदांत के समुख जाइ१०।
अुत बधी जाइ हति कै हटाइ।
१टुज़टके पए।
२भारी युज़ध होइआ।
३पैदलां दी फौज।
४इको वारी।
५गड़े।
६भाव सूरमिआण रूपी खेती ळ मारिआ।
७ग़खमी होके।
८पलीता दागदे हन वैरी वज़ल।
९पैदल।
१०वधी जाणदी ळ।