Sri Gur Pratap Suraj Granth

Displaying Page 99 of 626 from Volume 1

स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १)११४

दिज़ली पुर महिण मिस दिखराइ।
तन को ताग बिकुंठ सिधारे।
देवन जै जै शबद अुचारे ॥२३॥
अंध धुंध१ जग खरभर२ परो++।
तुरकन बिखै त्रास बहु करो।
हाइ हाइ सभि करि नर नारी।
तुरकेशुर को दैण बहु गारी ॥२४॥
तिस दिन ते अुज़तम नर जाना।
-हति भा राज तेज तुरकाना३-।
दिज़ली पुरि को तागि नुरंगा।
बाहर निकसि रहो डर संगा ॥२५॥
प्रविशो पुरि न आइ कै सोयो।
बड पापी निज सभि किछ खोयो।
सतिगुरु को करि कै अपराधू।
होयो श्रीहति दुशट असाधू४ ॥२६॥
जिम रावन दीरघ मद मानी५।
छल बल ते सीता हरि आनी६।
करि रघुबर को दोश मलीना७।
सकल समाज नाश करि लीना ॥२७॥
पतिशाहति बहु पुशतन केरी८।
सभि जग दोही फिरहि घनेरी।
सुरपति९ सम ऐशरज प्रकाशा।


१हनेरी ते अंधकार।
२घबराहट।
++गुरू जी दे सीस देण पर दिज़ली विच हनेरी चज़ली, अंधकार छाइआ, दिन वेले तारे दिज़से,
प्रिथवी कंबी, तवारीख मुहीत आग़म ते सैरुलमुतारीन दे करता मुसलमानां ने बी इह लिखिआ
है, देखो तवारीख खालसा सफा १४१६।
३अुज़तम पुरशां ने जाण लिआ कि हुण तुरकाण दे राज दा तेज नाश होइआ।
४असाध दुशट (औरंगग़ेब) आपणी विभूती ळ (आप) तबाह करने वाला होइआ।
५मद विच मज़तिआ होइआ।
६हरिके लै आणदी।
७रामचंद दा अपराध करके (मैला =) पापी हो गिआ ते।
८पीड़्हीआण वाली।
९इंद्र।

Displaying Page 99 of 626 from Volume 1