Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (ऐन १) ११२

लरि तुरकनि मन तन सभि छडे।
मक्र संकरखं अरकी होइ१।
आन शनानहि जे नर कोइ ॥४४॥
मनोकामना प्रापति सोअू।
पाप करे गन बय सभि खोअू।
बंदहि गंज शहीदन केरा२।
धन देवहि, नित वधहि वधेरा ॥४५॥
अबि ते नाम मुकतिसर होइ।
खिदराणा इस कहै न कोइ।
इस थल मुकति भए सिख चाली।
जो निशपाप घाल बहु घाली ॥४६॥
यां ते नाम मुकतिसर होवा।
जो मज़जहि तिन ही अघ खोवा।
अस महिमा श्री मुख ते कही।
सो अबि प्रगट जगत मैण सही ॥४७॥
इति श्री गुर प्रताप सूरज ग्रिंथे प्रथम ऐने मुकतिसर प्रसंग बरनन
नाम दादशमोण अंसू ॥१२॥


१मकर (राशी विच) सूरज होवे (अरथात) माघ दी संग्राणद जिस दिन होवे, ।मकर=मकर, राशी।
अरकी=सूरज। संकरखं तोण मुरादसंक्रण=संक्राणत दी है॥। (अ) (जदोण) मकर (राशी विच) सूरज
परवेश करे। ।संकरखं=भली प्रकार खिज़चे जाणा भाव परवेश करना॥।
२शहीदगंज ळ जो नमसकार करेगा।

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