Sri Gur Pratap Suraj Granth

Displaying Page 108 of 492 from Volume 12

स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १२) १२१

१५. ।भीखंशाह॥
१४ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १२ अगला अंसू>>१६
दोहरा: बसे निसा, कहि रहे बहु, खान पान नहि कीनि।
भई प्राति बैसे सु थल, दार अगारे तीन१+ ॥१॥
चौपई: सिमरति रिदे नाम गुरु केरे।
देहु दरस पूरन प्रभु मेरे।
दूर देश आगमन हमारा।
पूरहु मन संकलप दिदारा२ ॥२॥
सभि घट को मालिक गुर पूरा++।
पितापितामहि रण महि सूरा।
मन प्रेरहुगे जबि इन केरे।
बालिक रूप लेहि तबि हेरे ॥३॥
अपनि प्रियह की३ पुरहु भावना।
परखहु परम सु प्रेम पावना।
घट घट की तुम जानंहारे।
दरशन देहु जानि मन पारे ॥४॥
इज़तादिक गुन बरनन करिते।
भी भुनसार प्रकाश निहरिते४।
श्री गुर घर के सेवक सारे।
सुनि सुनि आइ समीप निहारे ॥५॥
तसबी हाथ फेरिबो करिही।
श्री नानक को सिमरति अुर ही।
दरशन दरसे बिना न जाअूण।
बैठो इत ही दिवस बिताअूण ॥६॥
श्री नानक को सदन महाना।
हिंदुनि तुरकनि एक समाना।
पज़ख पात जिन के कुछ नांही।


१भाव इक पीर ते दो मुरीद।
+पा:-दारे आग्रह कीनि।
२दरशन दा।
++पा:-पूरे। सूरे।
३प्रेमी दी।
४वेखिआ चानंा।

Displaying Page 108 of 492 from Volume 12