Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति १) १४२
१७. ।मेला विदा। सतलुज विच तरना, गुलाब राइ॥
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दोहरा: इम सतिगुर लीला करति, चोर जार बटपार।
सभिहिनि को चिंता भई करहि खौणसड़े१ मार ॥१॥
चौपई: न्रिभै बनिक ठानति बिवहारा।
गहो चोर ते अचरज धारा।
सूनी वसतु रहै किस थाईण।
नहि को सकै हाथ को पाई ॥२॥
केतिक दिन गुर के लवपुरि मैण।
बसे बनिक धरि आनद अुर मैण।
खाटो लाभ जितिक बिवहारू।
अुतसव जुति गुर दरस निहारू२ ॥३॥
कलीधर को ससुर अनदो।
भ्रातनि सहित आनि कर बंदो।
महाराज! कारज सभि भयो।
रिदे मनोरथ पूरन कयो ॥४॥
अबि चाहति सभि सदन सिधारा।
आप आपनी करति संभारा।
सुनि दो हुकम सभै तुम जावहु।
सिमरहु सज़तिनाम सुख पावहु ॥५॥
लवपुरि की संगति सुनि सारी।
वसतु संभारि करी निज तारी।
करि करि बंदन पंथ पधारे।
तिम रोपर सीरंद सिधारे ॥६॥
पुरि हुशिआर गए चलि केई।
करहि बारता मिलि मिलि तेई।
बारि निकासन, तसकर गहो३।
बाह सु कौतक जैसे लहो ॥७॥
सुनि सुनि अपर सिज़खहरखाइ।
१जुज़तीआण दी।
२देखिआ।
३जल दा कज़ढंा, चोर दा फड़ना।