Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ३) १४२
१५. ।ब्राहमण वलोण ग़हिर॥
१४ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ३ अगला अंसू>>१६
दोहरा: लघु दुंदभि दुइ समैण मैण,
बाजति गुर के पौर।
सबद* नफीरन को मिलहि,
गाइ सबद सिरमौर ॥१॥
निसानी छंद: बजहि कुलाहलि१ होति है, मंगल अुपजंते+।
पतनी प्रिथीए की सुनी, अुर शोक ब्रधंते।
नहि न बडाई सहि सकहि, दुख प्रापति भारी।
नहि पूरी मन भावनी, दुशटां जो धारी ॥२॥
अनिक अुपावनि चितवती, चिंता लतानी।
बस न बसावहि बुरेपर२, दुरमती अयानी।
-जतन बाद ही जाति है, नहि पूरो काजा।
अबि दिन प्रति बहु बधति है, सभि रीति समाजा ॥३॥
तसु लायक सभि रीति ते, सुंदर बल भारी।
कितिक बरख महि होइ है, सुधि लेहि संभारी।
गुरता रहि है तिनहु ढिग, कुल चलहि अगारी।
हम छूछे जिस भांति; तिम, संतती हमारी ॥४॥
कहां करहिगे बापुरे३, जाचहि घर जाई।
रलीआण पिखहि शरीक की, दीरघ दुख पाई।
अबि तो थोरे जतन ते, होइ आवति काजा।
हरि गोबिंद इक हते ते, सगरे सुख साजा ॥५॥
लघु दरखत जबि अुगति है, बल अलप अुखारे४।
गाढो होवहि मूल ते, नर लगि तबि हारे-।
इज़तादिक चिंता करहि, निस बासुर सोअू।
जिम पपीलका सैल५ को, चहि भगनति कोअू ॥६॥
*पा:-सदन।
१(वाजे) वजदिआण मंगल।
+इह रिवाज (नवीन) अकालीआण ने बंद कीता है, हुण ताईण इह वाजे दरशनी दरवाजेतोण बाहर
७.८ वजे सवेरे वजिआ करदे सन।
२वज़स नहीण चलदा गुरू जी दे बुरा करने पर।
३विचारे।
४थोड़े बल (नाल) अुज़खड़ जाणदा है।
५पहाड़।