Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १७५

-देखि न सुकचहि१ मोहि को, शुभ मती प्रबीना२- ॥६॥
छपे सुनति गुर सबद को, थित३ केतिक काला।
पढति रही अमरो तबहि, पुन भयो अुजाला।
जबिप्रभाति होई पिखि, तबि निकट सिधारा।
बूझन लागो शबद इह, किस भांति अुचारा? ॥७॥
हे पुज़त्री! अबि फेर पढि, मुझ देहु सुनाई।
मरो हुतो मैण, सुधा की; बूंदैण मुख पाई४।
करो जिवावन, सुख दियो, इह बड अुपकारा।
सुनि अमरो सुकचति५ कुछक गुर शबद अुचारा ॥८॥
स्री मुखवाक:
मारू महला १ घरु १ ॥
करणी कागदु मनु मसवाणी६ बुरा भला दुइ लेख पए ॥
जिअु जिअु किरतु चलाए तिअु चलीऐ तअु गुण नाही अंतु हरे ॥१॥
चित चेतसि की नही बावरिआ७ ॥
हरि बिसरत तेरे गुण गलिआ ॥१॥ रहाअु ॥
जाली रैनि जालु दिनु हूआ जेती घड़ी फाही तेती ॥
रसि रसि चोग चुगहि नित फासहि छूटसि मूड़े कवन गुणी ॥२॥
काइआ आरणु८ मनु विचि लोहा पंच अगनि तितु लागि रही ॥
कोइले पाप पड़े तिसु अूपरि मनु जलिआ संनी चिंत भई ॥३॥
भइआ मनूरु९ कंचनु फिरि होवै जे गुरु मिलै तिनेहा ॥एकु नामु अंम्रितु ओहु देवै तअु नानक त्रिसटसि१० देहा ॥४॥३॥
निशानी छंद: सुनि के सतिगुर सबद को, मन भयो हुलासा।
-मोहि दशा अस अबि अहै, जिम शबद प्रकाशा११।
तरुन अवसथा बित गई, बिरधापन पावा।
लोहा हुते मनूर भा, कित काज न आवा ॥९॥

१संकोच ना करे
(अ) शरमावे ना।
२भाव बीबी अमरो।
३खड़ोके।
४(तूं) पाईआण हन।
५शरमाके।
६दवात।
७कमलिआ।
८भज़ठी।
९सड़िआ गलिआ लोहा।
१०टिके।
११मेरी दशा हुण अुजेही है जेही शबद ने प्रकाश कीती है।

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