Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ३) १८०

१५. ।चेतो मसंद दा खोट॥
१४ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति ३ अगला अंसू>>१६
दोहरा: चहुंदिशि संगति दुखी लखि, -कूर मसंद बिलद।
शरधा रहिबे देति नहि, ले धन ताड़ति मंद* ॥१॥
चौपई: अनिक प्रकारनि के सिख मेरे।
घाट बाढ को नीच अुचेरे।
केचित निरधन को धनवान।
को प्रेमी, को नेमी मान ॥२॥
केचित कोमल परअुपकारी।
केचित अनखी नहि न सहारी१।
केचित मूरख, केचित पंडत।
गुरमुख सनमुख, परमति खंडति२ ॥३॥
शरधा द्रिढ, अन+ द्रिढ अुर धारी३++।
को कठोर को करतिअुचारी।
बसी मसंदनि संगति रही।
तौ सिज़खी निबहै जग नहीण ॥४॥
हम शरीर लगि गुरू रहे हैण।
सुधि संगति की सदा लहे हैण।
इस बिधि हमरे रहे पिछारी४।
न्रिभै होइ दुख देण पुन भारी ॥५॥
इन ते संगति सरब छुरावैण।
देण सिख कार आप ही आवैण५-।
इम चितवति बीतो कित काला।
सदा संगतां आइ बिसाला ॥६॥
बडी मात अरु गुजरी पास।
चेतो आदिक कहि अरदास।

*पा:-ताड़ बिलद।
१ग़रा जिंनी गल नहीण सहारदे।
२(कई) पराए मतां ळ खंडन करन वाले।
+पा:-मन।
३(कई) पज़की शरधा रिदे विच धारन वाले (ते कई) कज़ची (शरधा वाले हन)।
++पा:-अुपकारी।
४जे इसे तर्हां रहे साडे पिछोण।
५आप ही आके सिज़ख कार देवन।

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