Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ४) १८०
२४. ।दुनीचंद दी मौत॥
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दोहरा: भई भोर प्रभु जागि कै, सौच शनान शरीर।
बसत्र शसत्र को पहिर करि, बैठे गुनी गहीर ॥१॥
चौपई: मंगल प्रातिकाल के भए।
संख शबद धुनि बाजनि किए।
आसावार भोग कहु पाए।
सभि सिंघनि सुनि सीस निवाए ॥२॥
बाज अुठो रणजीत नगारा।
प्रभु की जीत जनावन वारा।
इत अुत ते चलि करि गन सिंघ।
दरसहि सतिगुर गोबिंद सिंघ ॥३॥
खड़ग सिपर जमधर सर तरकश।
तोमर तुपक तबर कट कसि कसि।
बैठहि आनि निकट समुदाई।शमस सुधारति मूछ अुठाई१ ॥४॥
अुत गिरपतिनि दुंदभी वाए।
ढोल समूह डंक ढमकाए।
रण सिंे तुरती बजवाए।
पटहि नफीरी जे समुदाए ॥५॥
महां कुलाहल दल महि होवा।
अुतसाहति चाहति गज ढोवा।
सभि पर सतिगुर द्रिशटि चलाई।
नहि मझैल को परो दिखाई ॥६॥
मज़टू सेवा सिंघ जि आदि।
नहि आयो का भयो विखाद?
इतने कहति सिंघ दुइ आए।
नमो करति ही बाक सुनाए ॥७॥
महाराज! संग लए मझैल।
दुनीचंद भाजो, निस गैल२।
१दाड़्हा सुधारदे ते मुज़छां ळ ताअु देणदे हन।
२रातीण राह पै के।