Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १९०
अुचित कशट के है इह सद ही
कोण इहु दीनो रोग गवाइ।
अबि ते बहुर न करहु दिखावनि
किस असथान किछू हुइ जाइ ॥२५॥
अजर जरन हुइ संतनि को अुर
महां गंभीर सु धीर बिसाल।
सिर लग देति देर नहिण लावहिण,
अग़मत नहिण दिखाइण किसि काल।
ऐसे करहिण बधति१ नित जावहि,
किसू जनावहिण रहहि न पालि२।
सीख धरहु द्रिड़ नहिन बिसारहु,
सदा समारहु प्रभू क्रिपाल ॥२६॥सुनि श्री अमर जोरि कर ठांढे
छिमहु गुरू! मैण मनमति कीनि।
नहीण रजाइ आप की बरती
अबि मैण करौण सीख जिम दीन।
बिरद बडो बखशिंद आप को
सागर जिम गंभीर प्रबीन३।
धीर धरा सी धरति४ सदा तुम,
हम का जानहिण जीव मलीन ॥२७॥
बिनती सुनति प्रसंन होइ प्रभु*
बखशे, करहु न ऐसे फेरि।
निज सरीर पुन तथा बनायहु
चरण अंगूठे ब्रिं५ जु बडेर।
राणध रुधर चोवति+ रहि थोरो
गुर की कथा अकथ ही हेरि।
१(शकती) वधदी है।
२किसे ळ जंाइआण पज़ले नहीण रहिणदी।
३दाने।
४धरती वाणग धीरज धारन करदे हो।
*पा:-करि।
५फोड़ा।
+पा:-निचुरति।