Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १९७

करन लगे बिनती तबहि, करि जोरति दोई।
मोहि निथावाण इन कहो, सो साच बखानी।
जब लौ आतम रूप को, मन लेय न जानी ॥२०॥
थाअुण पाइ करिथिरहि नहिण१, तब लगौण निथावाण।
भटकति म्रिग त्रिशना बिखै, कित* शांति न पावा।
जब तमरी सेवा रुचिर२, किय तरक जुलाही।
सही गई नहिण मोहि ते, -बौरी- तब प्राही ॥२१॥
प्रेम लपेटो बाक सुन, मन द्रवो क्रिपाला।
भए महां अनुकूल३ तबि, लखि घाल बिसाला।
बखशन को बखशश महां, अुमगो अुर भारी।
करन क्रितारथ दास को, गुर गिरा अुचारी ॥२२॥
तोमर छंद: तुमहो निथावन थान४।
करि हो निमानहिण+ मान५।
बिन ओट की तुम ओट६।
निधरेन की धिर कोट७ ॥२३॥
बिन जोर के तुम जोर८।
सम को न है तुम होर।
बिन धीर को बर धीर९।
सभि पीर के बड पीर ॥२४॥
तुम हो सु गई बहोड़१०।
नर बंध को तिह छोड़११।
घड़ भंनिबे समरज़थ।


१ना टिके।
*पा-चित।
२सुहणी सेवा ळ।
३क्रिपालू।
४निथाविआण दा थां।
+पा-निमानन।
५निमांिआण दे मां।
६निओटिआण दी ओट।
७निर आधार दी द्रिड़्ह धिर (आधार) कोट (वाणू)।
८निग़ोरिआण दे ग़ोर।
९अधीरजाण ळ धीरजदेण वाले।
१०गई ळ फेर मोड़ लैं वाले।
११फसे होए नराण ळ छुडाअुण वाले।

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