Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २०४
परखदिखावहिण अुचित सु नांही१*- ॥१९॥
इम बिचारि श्री अंगद ठाना।
बडे पुज़त्र सोण बाक बखाना।
दासू! इस के संग सु जावहु।
प्रेत बिडारि सु ग्राम बसावहु ॥२०॥
सुनि कै कहति भयो नहिण जाअू।
भूत प्रेत महिण कुतो२ बसाअूण।
हमरो ग्राम खडूर रहनि को।
इस को तागति जाअुण तिह न को+ ॥२१॥
ऐसे थान पठावन लागे।
जहिण को बसहि न, सभिहूं तागे३।
मो ते तहां न जायो जाइ।
थान सखत सो बसहि न काइ४ ॥२२॥
महां बली तहिण देव सुने हैण।
किस हूं पास न जाहिण गिने हैण।
घर की कंध अुसारति जौन।
भई रैन ढाहति हैण तौन ॥२३॥
करहिण बाद, नहिण बसने देति।
कैसे होवै करे निकेत५।
तहिण बसि कै हम लेनो का है।
सकल पदारथ दिए६ इहां है ॥२४॥
लघु सुत दातू की दिशि हेर।
फेरु आन फुरमायो फेर७।
१ओह (भाव पुज़त्र) गज़दी दे योग नहीण हन।
*पा:-याही = जेहड़ा गज़दी दे जोग है।
२किज़थे, किवेण।
+पा:-तागन जाअुण तहनि को।
३जिस ळ सभ ने छज़ड दिज़ता है, कोई नहीण वसदा।
४कोई
(अ) किवेण बी।
५घर बणाए होए (बाद करदे =) बिरथा कर देणदे हन, भाव ढाह देणदे हन, वज़सं नहीण देणदे
(भावेण कोई) केहो जेहा होवे। (अ) ओथे घर दा बनाअुणा किस तर्हां होवे।
६दिज़ते हन (तुसां या रज़ब ने)।
७फेर फेरू दे पुज़त्र (भाव श्री गुरू अंगद देव जी ने) फुरमाइआ।