Sri Gur Pratap Suraj Granth

Displaying Page 215 of 473 from Volume 7

स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ७) २२८

२७. ।भाई बिधी चंद घसिआरे दे रूप विज़च॥
२६ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ७ अगला अंसू>>२८
दोहरा: गुरबानी पढि खुरचतो,
जमी जानी जोइ१।
करति बटोरन टोर करि२,
बहु ठौरन ते सोइ ॥१॥
चौपई: जथा बिडूरजमणि३ को बरण।
तथा दूरबा४ शुभ मन हरण।
करि इकज़त्र सिर लीनि अुठाइ।
सने सने चलि पुरि महि आइ ॥२॥
गमनो पुन बग़ार की ओर।
सनमुख महां दुरग के पौर।
त्रिं कोमल अरु सुंदर रंग।
नर बिरमाइ५ कहैण इह संग ॥३॥
जे बेचति है मोल भनीजै।
लेहु नगद, इहु हम को दीजै।
सुनि बिधीआ तिन के संग कहै।
इस को मोलरजतपण६ अहै ॥४॥
तूशन होति देति नहि कोई।
चलो जाति आगे कहु सोई।
रहो दिवस जबि घटिका चारी।
पहुच दुरग के पौर अगारी ॥५॥
इतने महि सोणधे खां आयो।
हयनि सेव पर जो ठहिरायो।
नर गन संग सु निकसो पौर।
बिधीचंद देखो तिस ओर ॥६॥

१जो रात दा अुगिआ होइआ सी।
२टोल के।
३भाव हरे रंग दा है। ।बिडूरज मणि = लहसनीआण : संस: वैदहय मणि। अंग्रेग़ी कोशकार इस
ळ लैपिग़ लाग़ुली ते कैटसआई (लसनीआण) दज़सदे हन। रंग धूम्र वी लिखिआ है, पर पज़छमी
दज़सदे हन कि रंग नीला, सावा, अूदा, लाल टिमकंिआण दा बी हुंदा है॥
४तिड़्हां वाला घाह, खज़बल।
५लुभा के।
६इक रुपज़या।

Displaying Page 215 of 473 from Volume 7