Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (ऐन १) २३५

अुठे प्रात पिखि डज़ला खरो।
हुइ प्रसंन मुख ते बच करो।
जाचि लेहु मन कामन जोइ।
पूरन करहि अनद महि सोइ ॥३५॥
श्री प्रभु! जहां बास तुम ठाना।
इक पीढी कहु मुहि दिहु थाना।
अपनि नजीक राखीअहि मोही।
अपर न मो अुर मैण इछ होही ॥३६॥
सुनि करि तिस ते गुरू अुचारी।
अंम्रित लिहु खंडे कहु धारी।
डज़ले ते डल सिंघ कहावहु।
पुन गुर घर को सिदक कमावहु ॥३७॥
पुन कर जोरि कहो हित दे चित।
मैण तो बहुत छको है अंम्रित।
गुर बोले कबि किस ते छको?
हम नहि लखो कूर कोण बको? ॥३८॥
श्री गुर सीत प्रसाद तुहारा।
अचति रहो मैण ले करि थारा१।
तिस ते ही मुझ करहु सनाथ।
सभि घट के मालिक जगनाथ! ॥३९॥
पुन प्रभू कहो न इस बिधि टरो।
खंडे को अंम्रित मुख धरो।
श्री गुर! सो भी खंडे केर।करद भेट किय अचिबे बेर ॥४०॥
सुनि करि स्री मुख बहु बिकसाने।
सुनि डल सिंघ* हम खुशी महाने।
जो अंम्रित खंडे को लै है।
गुर को सो जहाज चढि जैहै ॥४१॥
सिर पग धरि धरि कै तबि भनि है२।


१थाल।
*पा:-डज़ला।
२सिर चरनां ते रज़ख रज़ख के (डज़ला) बोलिआ।

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